The Cow is our Mother….Beyond that we know little….

गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं……. Advocate Deepak K Singh

हाल ही में घोषित हरियाणा बोर्ड के नतीजों में गवर्नमेंट सीनियर सेकंड्री स्कूल, कोटी, मोरनी, पंचकुला, हरियाणा की दसवीं कक्षा के 21 छात्रों में से 7 अंग्रेजी विषय में फेल हो गए, 9 छात्रों को केवल पासिंग अंक हासिल हुए, बाकी बचे 5 छात्र किसी तरह 30 के आंकड़े को पार कर पाए (इंडियन एक्सप्रेस के वेब पोर्टल के हवाले से, 18 जुलाई 2020). जब पूरा देश सीबीएसई के नतीजों को लेकर हर्ष उन्माद में था और 99% और 100% के तराजू में काबिलियत को तोला जा रहा था ठीक उसी वक़्त देश में हिंदी पट्टी के एक राज्य में ये घटना घट गयी. कोई नई बात नहीं है. हमारी तो व्यवस्था ही ‘फेल–पास’ वाली है. अब तो हम उससे भी आगे निकल गए हैं. 90s से कुछ भी कम तो समझो बेकार. बात अब हंड्रेड आउट ऑफ़ हंड्रेड की होती है.

एक स्वाभाविक सवाल है ऐसा क्यूँ हुआ? बहुत ही स्वाभाविक जवाब है स्कूल में मास्टर नहीं था यूँ हुआ. फिर से स्वाभाविक प्रश्न के मास्टर कहां था? लेकिन इस बार जवाब थोडा अलग है. मास्टर जहाँ-कहीं भी रहा हो लेकिन वहां नहीं था जहाँ उसे वास्तव में होना चाहिए था याने की स्कूल में. और वो लगभग पूरे अकादमिक सत्र में वहां नहीं था. दरअसल मास्टर हरियाणा के गाय पैनल प्रमुख के यहाँ निजी सचिव के तौर पे डेपुटेशन पे था. सैलरी करीब एक लाख रूपए शिक्षा विभाग से ले रहा था. शिक्षा विभाग के मुताबिक उसे बुलाने के लिए कई बार रिक्वेस्ट/रिमाइंडर इत्यादि भेजे गए पर वो नहीं आया. मास्टर के मुताबिक उसका टेन्योर गाय पैनल प्रमुख के यहाँ बढ़ गया था जिसकी सूचना शिक्षा विभाग को दे दी गयी थी लेकिन जो (इस खबर के छपने तक) शिक्षा विभाग को नहीं मिली. और बाकी वही सरकारी लीपा-पोती.

लेकिन ये सब जाए भाड़ में. मैंने जब से ये खबर पढ़ी है मैं अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ. बहुत रोमांचित महसूस कर रहा हूँ. क्या गजब का प्रोग्रेसिव-क्रांतिकारी काम किया है. गाय पैनल में एक अंग्रेजी का मास्टर, वाह! अद्भुत! अरे! किसी संस्कृत-वंस्कृत, हिंदी-फिंदी के मास्टर को भी तो सरकार बुला ही सकती थी. लेकिन देखिये… इसी को कहते हैं ऊँची सोच. अंग्रेजी का मास्टर स्कूल में ज्यादा से ज्यादा बच्चों को पढाता ही ना ! उससे क्या उखाड़ लेता. बल्कि नुक्सान ही करता. कोई एकाध बालक अंग्रेजी में पढ़ लिख जाता तो उल्टे संस्कृति को ही गरियाता! और अगर इंग्लिश लिटरेचर-फिट्रेचर पढ़ लेता तो और मुसीबत. अब हकीकत में तो अंग्रेजी के मास्टरों की ज़रूरत यहीं है.

क्या बात कर रहे हैं? गाय पैनल का राज्य प्रमुख खुद अंग्रेजी में कैसे काम कर सकता है? संस्कृति का प्रश्न है? क्या हुआ अगर वो कच्छाधारी या चुटियाधारी या तिलकधारी या भगवाधारी अंग्रेजी नहीं जानता? अरे गाय माता की भाषा तो वही जानता है. गाय माता क्या चाहती है, गोबर-गौमूत्र से बम और बंकर, रसायन, रासायनिक हथियार, दवाइयां, वेक्सीन आदि कैसे बनने हैं इत्यादि यक्ष प्रश्नों को सीधे गाय माता से समझने का अद्भुत कौशल तो इसी लम्पट के पास है. ये तो इनकी प्रगतिशीलता है के इस मलिछ भाषा को इतना स्पेस दे रहे हैं वो भी तब जबकि भारत विश्वगुरु बनने जा रहा है. आत्म निर्भर बनने जा रहा है. वो दिन अब दूर नहीं जब हर घर में एक कामधेनु गाय बंधी होगी.

आत्मनिर्भरता का ट्रेडमार्क. मास्टर्स और डाक्टरेट के डिग्री धारी लोटे में गौमूत्र और हथेली पर गोबर लिए घूमेंगे और और एक नया डिस्कोर्स खड़ा करेंगे. ब्रह्माण्ड में ‘काऊ एलिमेंट’ स्थापित किया जाएगा. संविधान की प्रस्तावना ‘हम गाय के बच्चे…’ टाइप से लिखी जाएगी, संविधान के पार्ट IV, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में ‘गाय नीति’ नाम से उपबंध जोड़ा जायेगा, आई पी सी में नया अध्याय ‘ओफेंसेस अगेंस्ट काऊ-बॉडी’ जोड़ा जायेगा, सी आर पी सी में बदलाव कर प्रोसीजर रखेंगे और सबसे जबरदस्त ये के एविडेंस एक्ट में यथोचित बदलाव करके ये सुनिश्चित करेंगे की गाय माता अपने और किसी भी ऐसे लम्पट के मुकदमे में ‘कम्पीटेंट विटनेस’ बन सकें और उनकी भाषा को समझने के लिए सरकारी खर्च पर एक लम्पट दुभाषिया हर अदालत में विधमान रहेगा और जिसका बयान हर हाल में संदेह से परे होगा व जिसका क्रॉस एग्जामिनेशन मान्य नहीं होगा…..बस! और न जाने क्या-क्या..?

अरे, आज एक पैनल है, कल एक विभाग होगा, फिर मंत्रालय, कैबिनेट दर्ज़ा..अद्भुत…विलक्षण अत्यंत मनोहारी ! मैं भीतर तक गदगद हो उठा हूँ. मेरा रोमांच बढ़ता जा रहा है. और अब मुझे वो फेल हुए छात्र बलिदानी से लगने लगे हैं. एक महान यज्ञ में वो महज़ एक आहुति से लग रहे हैं. एक लम्पट बैठा हुआ उस यज्ञ को कर रहा है और उसमे शामिल सभी पर गोमूत्र और गोबर फेंक रहा है. सांस्कृतिक महानुष्ठान में आहुतियाँ तेज़ होती जा रही हैं. उन आहुतियों के धुंए से फलक पर कुछ आकृतियाँ बन गयी हैं जो लगातार अपने स्वरुप को बदल रहीं हैं. कभी गाय, कभी भीड़, कभी अट्टहास करता लम्पट-तिलकधारी, संसद, संविधान, सुप्रीम कोर्ट, लाशें, चिताएं और ….वही सांस्कृतिक महानुष्ठान.

अभी ये मनोरम कल्पना चल ही रही थी के कोई किसी मंच से या किसी टी वी चैनल से चीखने-चिल्लाने लगा. क्लियर नहीं है कहाँ से बोल रहा था. बंदा देखा-भाला लग रहा था. कहाँ देखा था? किसी न्यूज़ चैनल पे..? मुझे टारगेट करते हुए बोला- “ये क्या वाह्यात मुद्दा लेके बैठ गए हो”. “बच्चे फेल हो गए तो क्या हुआ? पास होकर भी क्या उखाड़ लेते”? अचानक से बैकग्राउंड में तेज़ वीर रस टाइप म्यूजिक चलता है. जबरदस्त इको इफ़ेक्ट. “कहीं नौकरी ही करते ना ! फिर वही छोटी सोच”! मुझे अपराध बोध सा होने लगा. म्यूजिक और घनघोर होता चला गया. एंकर और बदहवास हो गया. “नौकरी-फौकरी में क्या रखा है? समय आन्त्रेप्रेन्यौर(उद्यमी) बनने का है”. “आत्म-निर्भर बनना है. बनना है के नहीं बनना है”? “प्रधानमंत्री ने कह दिया है. इसलिए इसी दिशा में काम करना है. अब आत्मनिर्भरता का पढाई-लिखाई से क्या लेना देना?

देश का नौजवान जब तक पढता-लिखता रहेगा और परीक्षाओं में वक़्त ज़ाया करेगा तब तक देश आत्म निर्भर नहीं बन पायेगा”. फिर एंकर ने चश्मे के भारी ग्लासेज के पीछे फैली हुई गोल आँखों से मुझे घूरा. मुझे लगा एकदम मेरे अन्दर घुस जाएगा. चिल्लाया ! “आन्त्रेप्रेन्यौर बनना हैssssssssssss के नईं बनना हैsssssss”? इतने में लाइट चली गयी. मैंने बिजली विभाग को धन्यवाद दिया. मेरा पीछा छूटा. बच गया. आत्म-निर्भरता का उद्घोष मेरे अन्दर तक बैठ गया था मानों एंकर टीवी से निकल कर मेरे पेट में जाके बैठ गया हो. मैं फिर से गदगद हो उठा. वो फेल हुए बच्चे मेरी आँखों के सामने आने लगे. आन्त्रेप्रेन्यौर के ड्रेस पहने. कोई चाय का ठेला लगाये घूम रहा है. कोई पकोड़े तल रहा है. किसी ने भजन-कीर्तन मंडली खोल ली है. कोई गाय के गोबर के उपलों (कंडों) का बड़ा उत्पादक और निर्यातक हो गया है और रिलायंस, अदानी, गेल इत्यादि के गैस व्यापार को डायरेक्ट चुनौती दे रहा है. देश के स्कूल कॉलेज लगभग बंद हो गए हैं. जो चल रहे हैं उनमे आत्मनिर्भरता का पाठ्यक्रम पढाया जा रहा है.

मैकाले की शिक्षा व्यवस्था का बहिष्कार हो रहा है. बच्चों ने सार्वजनिक रूप से अपने सर मुंडवा लिए हैं, चोटी और जनेऊ धारण कर लिया है. अंग्रेजी, विज्ञान, गणित आदि की किताबें जलाई जा रही हैं. इतिहास पढने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है और उसके लेखन के लिए एक विशिष्ट विभाग स्थापित किया गया है. पढाई-सिखलाई का अनूठा प्रयोग हो रहा है. टीवी और रेडियो से सारा ज्ञान बांटा जा रहा है जिसमे केवल बोलनेवाला और सुन्ने वाले होते हैं. कोई सवाल नहीं-कोई जवाब नहीं. गौमाता रंभा रही हैं, महानुष्ठान में आहुतियाँ और तेज़ होती जा रही हैं, धुआं बढ़ता जा रहा है और उससे बनने वाली आकृतियाँ और भयानक और खूंखार होती जा रही हैं. टूटे तीर कमान हाथ में लिए राम नाम का एक सदाचारी पुरुष उस महानुष्ठान से निष्काषित कर दिया गया है. लम्पट आहुतियाँ दिए जा रहा है और मुझे देख कर मुस्कुरा रहा है.

दीपक के सिंह, एडवोकेट.

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