कहाँ अवाम का शायर…कहाँ फासिस्ट…
राहत इंदौरी साहब के इंतक़ाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न तो शोक जताया और न कोई प्रतिक्रिया दी। अवाम के शायर की मौत पर तमाम फासिस्टों का शोक न जताना उस शायर का सबसे बड़ा हासिल है। यानी वो शायर तमाम फासिस्टों को चुभता रहा है और चुभता रहेगा। इसके लिए उस परवरदिगार का शुक्रिया भी बनता है कि वो ऐसे फासिस्टों को वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से हमेशा कंगाल रखे।
यह बहुत बड़ी लकीर है जिसे राहत साहब खींचकर गए हैं। जिसे आगे बढ़ाना उर्दू-हिन्दी के कवियों, लेखकों की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है।
राहत इंदौरी साहब के इंतक़ाल पर जो सबसे बेहतरीन प्रतिक्रिया मुझे पढ़ने को मिली, वह हिन्दी के प्रमुख कवि असद ज़ैदी Asad Zaidi साहब की थी।…लगा जैसे उन्होंने भारतीय अवाम की ओर से प्रतिक्रिया दी है…
वह लिखते हैं –
Poet of Courage
“एक काम का आदमी और हिम्मतवर शाइर चला गया। इन्दौर शहर में, जो बरसों से फ़ासिस्टों के हवाले है, उसका होना एक मानी रखता था। वह प्रतिरोध का प्रतीक था।”
हिन्दी के एक और कवि बोधिसत्व Bodhi Sattva जी की यह प्रतिक्रिया भी दिल को छू गई –
“हिन्दुस्तान का एक खुद्दार और ताकतवर शायर था राहत, जिसने उर्दू शायरी को अलग जुबान दी, अलग आवाज दी, अलग मकाम दिया। जिसने कहने के आंदाज को एक नया विस्तार दिया। जिसने सियासी नाइंसाफी को शायरी से चुनौती दी। जिसने उर्दू शायरी को जुल्फ और हुस्न के गुलाबी मखमली माहौल से निकाल कर वहां पहुंचाया जहां के लिए वह बनी है।
यह एक शायर का अकेले जाना नहीं बल्कि हिन्दुस्तानी शायरी और भारतीय कविता का मूक हो जाना है। ऐसी बुलंद काव्यात्मक आवाज और बड़ी दृष्टि बड़ी मुश्किल से पैदा होती है। यह भारी क्षति है। हिन्दुस्तान की संस्कृति का एक विशाल स्तम्भ गिरा है। हमारा सांस्कृतिक भवन थोड़ा दरक गया है। यह देश की एक बड़ी क्षति है।”
इतनी पावरफुल प्रतिक्रियाओं के आगे वो प्रतिक्रियाएँ नाकाम हो गईं जिसे भाजपा आईटी सेल ने अपने भाड़े के नफ़रती चिंटुओं से राहत साहब के खिलाफ आयोजित की थीं।…